“कट-कॉपी-पेस्ट पत्रकारिता: व्याकरण को ठेंगा, कलम को तमाशा!”
लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ को बना दिया चौराहा

“कट-कॉपी-पेस्ट पत्रकारिता: व्याकरण को ठेंगा, कलम को तमाशा!”
लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ को बना दिया चौराहा
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बिना व्याकरण के पत्रकार! हिंदी का ‘हिं’ भी नहीं आता, फिर भी लोकतंत्र का ठेका लिए बैठे हैं!
आजकल पत्रकारिता का आलम ऐसा हो गया है जैसे कोई भी झोला उठाकर डॉक्टर बन जाए और कहे – “आज से हम सर्जन!” पत्रकारिता जैसे जिम्मेदार पेशे में अब न तो पढ़ाई की जरूरत रह गई है, न भाषा की समझ, बस एक प्रेस कार्ड चाहिए, वो भी ₹500 वाला प्लास्टिक का और फिर कलम से नहीं, ‘कीबोर्ड शॉर्टकट’ से क्रांति की तैयारी।
इन ‘कट-कॉपी-पेस्ट योद्धाओं’ को ना अल्पविराम का ज्ञान है, ना पूर्णविराम की मर्यादा। हलंत का मतलब उन्हें हलवा लगता है और विसर्ग शायद किसी वायरस का नाम है उनके लिए। व्याकरण की बात करने पर इनका जवाब होता है – “भैया, खबर छपनी चाहिए, भाषा बाद में देख लेंगे।”
इन नवोदित ‘पत्रकारों’ के कारण असल में पढ़े-लिखे, निष्ठावान पत्रकारों को भी अब शक की निगाह से देखा जाने लगा है। आमजन यह सोचने पर मजबूर हो गए हैं कि क्या पत्रकारिता की परीक्षा अब गूगल ट्रांसलेट और मोबाइल नोटपैड पर ही होती है?
सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि यह तमाशा तब हो रहा है जब पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा गया है। लेकिन इस स्तंभ को अब भाषा, विवेक और गहराई की नींव की नहीं, बल्कि ‘रिल्स’, ‘थंबनेल’ और वायरल हेडलाइन की ईंटों से खड़ा किया जा रहा है।
समाज से सवाल:
क्या पत्रकारिता अब सिर्फ मोबाइल कीबोर्ड और वायरल पोस्ट तक ही सीमित रह गई है?
क्या भाषा की मर्यादा ताक पर रखकर जनता को भ्रमित करने वालों को पत्रकार कहना ठीक है?
क्या लोकतंत्र का यह स्तंभ अब ‘सेल्फी-जर्नलिज्म’ के भरोसे छोड़ा जा चुका है?पत्रकारिता को फिर से शुद्ध भाषा, तथ्य और मूल्य आधारित बनाना होगा। नहीं तो कल ‘संवाददाता’ शब्द भी शायद ‘सेंड-डेटा’ बना दिया जाएगा!