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बाना-परसाही में पन्नी तानकर अंतिम संस्कार, शासन-प्रशासन की सच्चाई बेपर्दा

धरती आबा का पर्व मना, पर धरती पुत्र की अस्थियाँ खुले आसमान तले

बाना-परसाही में पन्नी तानकर अंतिम संस्कार, शासन-प्रशासन की सच्चाई बेपर्दा

धरती आबा का पर्व मना, पर धरती पुत्र की अस्थियाँ खुले आसमान तले

आदिवासी गांव आज भी तरस रहे बुनियादी सम्मान को

 

अकलतरा। धरती आबा के नाम पर सरकारी उत्सव मना लेना आसान है, लेकिन धरती के असली पुत्रों को अंतिम विदाई तक के लिए सम्मान नहीं दे पाना शासन की क्रूर असंवेदनशीलता की बानगी है। अकलतरा ब्लॉक के आदिवासी बहुल गांव बाना-परसाही में एक आदिवासी महिला की मौत के बाद अंतिम संस्कार खुले आसमान के नीचे किया गया, वह भी पन्नी तानकर।

शव को एक दिन तक घर पर इसलिए रखा गया क्योंकि बारिश हो रही थी और गांव में न तो कोई पक्का मुक्तिधाम है, न ही बुनियादी इंतजाम। आखिरकार मौसम साफ होने पर पैरा जलाकर अस्थायी स्थान पर दाह संस्कार किया गया।

यह कोई पहली घटना नहीं है। इसी गांव में पहले भी एक व्यक्ति की मौत पर इसी तरह पन्नी तानकर अंतिम संस्कार किया गया था। पोडी दल्हा में कीचड़ भरे रास्ते से मुक्तिधाम ले जाए गए शव की तस्वीरें पूरे जिले को झकझोर चुकी हैं। तब ग्रामीणों ने शव रास्ते पर रखकर चक्काजाम किया था, प्रशासन ने तब मुक्ति धाम की घोषणा की थी लेकिन बेजा कब्जों और ढुलमुल रवैये ने उसे भी कागजों में दफना दिया।

वादा हुआ, निभाया नहीं

बुचीहरदी की घटना भी अभी लोगों के जेहन से मिटी नहीं जहां पन्नी तानकर अंतिम संस्कार हुआ था। विधायक राघवेंद्र सिंह ने 5 लाख की स्वीकृति दी, लेकिन यह पहल पूरे क्षेत्र के लिए नहीं दोहराई गई।

वास्तव में होना यह था कि प्रशासन सभी ऐसे गांवों की सूची बनाकर तत्काल पक्के मुक्तिधाम का निर्माण कराता, लेकिन अफसरशाही की निष्क्रियता के चलते आज भी आदिवासी गांवों में शवों को खुले में जलाना मजबूरी बन चुका है।

धरती आबा उत्सव का खोखलापन

विडंबना देखिए कि कुछ दिन पूर्व इसी गांव बाना-परसाही में ‘धरती आबा’ उत्सव धूमधाम से मनाया गया। अफसरों और नेताओं ने मंच से आदिवासी उत्थान की लंबी चौड़ी बातें कीं, लेकिन उसी गांव में अंतिम संस्कार तक की सुविधा नहीं है।

‘धरती आबा’ बिरसा मुंडा को कहा जाता है जिन्होंने आदिवासियों के अधिकारों के लिए संघर्ष किया। लेकिन छत्तीसगढ़ में इस शब्द को केवल राजनीतिक औजार की तरह इस्तेमाल किया गया है — हकीकत यह है कि आज भी आदिवासी समाज न सड़क, न स्वास्थ्य, न शिक्षा और न सम्मानजनक विदाई जैसे मूल अधिकारों से लैस हैं।

मुख्यमंत्री से भी सवाल

राज्य में एक आदिवासी मुख्यमंत्री हैं। फिर क्यों आज भी आदिवासी बस्तियों को इस हालात से गुजरना पड़ता है? क्या यह सामाजिक और प्रशासनिक शर्म का विषय नहीं?

इस खबर के माध्यम से शासन और जिला प्रशासन को जगाने की आवश्यकता है। काश अफसर धरती आबा का अर्थ समझ पाते — केवल नारा नहीं, एक जीवंत जिम्मेदारी होती है, जिसे निभाना पड़ेगा।

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