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“पत्र तो बोहितराम के नाम से, लेकिन शब्द किसी और के लगते हैं!”

दिव्यांग संघ के भीतर फिर उठी कलम और कर्ता की सच्चाई पर बहस

“पत्र तो बोहितराम के नाम से, लेकिन शब्द किसी और के लगते हैं!”

दिव्यांग संघ के भीतर फिर उठी कलम और कर्ता की सच्चाई पर बहस

पंडरिया। छत्तीसगढ़ दिव्यांग सेवा संघ के नाम पर जारी एक पत्र (क्रमांक/पत्र/232 दिनांक 11.10.2025) ने पूरे प्रदेश के दिव्यांगजनों और संघ के सदस्यों के बीच नई बहस छेड़ दी है। पत्र पर हस्ताक्षर तो प्रदेश अध्यक्ष बोहितराम चंद्राकर के हैं, पर भाषा, भाव और बयानबाज़ी देखकर अब यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि — “क्या यह पत्र वाकई बोहितराम ने लिखा या किसी ने उनके नाम से लिखवाया?”

पत्र में संघ के पूर्व सचिव संतोष टोंडे, दिलीप कुमार रायपुर, शशिकांत साहू, हेमनदास साहू और रामलाल साहू पर संघ के लेटरहेड के दुरुपयोग और “फर्जी पत्राचार” करने का आरोप लगाया गया है। इसमें कहा गया है कि “फर्जी दिव्यांगों” के साथ मिलीभगत कर संघ को तोड़ने और वर्तमान अध्यक्ष के खिलाफ षड्यंत्र रचा गया।

परंतु सवाल यह है कि क्या इस पत्र में व्यक्त शब्द, कानूनी धाराओं की जटिल भाषा, न्यायिक प्रक्रिया के उल्लेख और आत्म-प्रशंसा भरे पैराग्राफ वाकई प्रदेश अध्यक्ष बोहितराम की लेखन शैली हैं, या फिर पीछे कहीं कोई “ड्राफ्टर लॉजिकर” बैठा है, जो पूरे घटनाक्रम को अपनी कलम से मोड़ने में लगा है?

पत्र में बोहितराम ने स्वयं को “वैध अध्यक्ष” घोषित करते हुए कहा है कि “जब तक प्रस्ताव पारित नहीं होता, तब तक मैं ही अध्यक्ष हूँ”, लेकिन सवाल यह भी है कि जब अध्यक्ष स्वयं को साबित करने के लिए थाने तक पत्र भेजने पर मजबूर हों, तो संगठन के अंदर की अनुशासन व्यवस्था का क्या हाल होगा?

संगठन के अंदर के कई वरिष्ठ सदस्यों का कहना है कि
“भाषा बोहितराम की नहीं लगती, यह किसी ‘कानूनी सलाहकार’ की लेखनी है जिसने पूरा मसौदा तैयार किया और बोहितराम से बस हस्ताक्षर करवाए।”

वहीं कुछ अन्य पदाधिकारियों का तर्क है कि यह पत्र संघ की “भीतर की लड़ाई” का नतीजा है, जिसमें फर्जीवाड़े और पावर गेम के बीच असली मुद्दे, दिव्यांगों के अधिकार, कहीं पीछे छूट गए हैं।

दिव्यांग सेवा संघ, जो कभी छत्तीसगढ़ के दिव्यांगजनों की आवाज़ माना जाता था, अब आरोप–प्रत्यारोपों और “फर्जी लेटरहेड” की राजनीति में उलझता दिख रहा है। पत्र का शब्दों में जितना दम है, उसके पीछे की मंशा उतनी ही संदिग्ध नज़र आती है। कुछ सदस्य इसे “पूर्व अध्यक्षीय गुट” और “सलाहकार लॉजिकर” की चाल बताते हैं, वहीं कुछ का कहना है कि “बोहितराम को बिना जाने सबके सामने मोहरे की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है।”

अब असली सवाल यही है “क्या यह पत्र बोहितराम की कलम से निकला, या किसी और की चालाकी से लिखा गया?” जवाब चाहे जो भी हो, दिव्यांगों के अधिकारों की जंग अब कागज़ी कलम की राजनीति में उलझ चुकी है।

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