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“फर्ज़ी प्रमाण पत्र पर नौकरी, शासन खामोश, कब जागेगा शिक्षा विभाग?”

संयुक्त संचालक ने सेवा समाप्ति की सिफारिश कर दी, फिर भी कार्रवाई नहीं, फर्ज़ी दिव्यांग शिक्षक को संरक्षण क्यों?

“फर्ज़ी प्रमाण पत्र पर नौकरी, शासन खामोश – कब जागेगा शिक्षा विभाग?”

संयुक्त संचालक ने सेवा समाप्ति की सिफारिश कर दी, फिर भी कार्रवाई नहीं — फर्ज़ी दिव्यांग शिक्षक को संरक्षण क्यों?

बिलासपुर/रायपुर। छत्तीसगढ़ के शिक्षा विभाग की कार्यप्रणाली एक बार फिर सवालों के घेरे में है। मामला जांजगीर-चांपा ज़िले के शासकीय पूर्व माध्यमिक शाला कुम्हारीकला में पदस्थ शिक्षक सुधेश कुमार सिंह चंदेल का है, जिनके विरुद्ध फर्ज़ी दिव्यांगता प्रमाण पत्र के आधार पर शासकीय सेवा करने की शिकायत छत्तीसगढ़ निःशक्त जन अधिकार सहयोग समिति के प्रांतीय अध्यक्ष राधाकृष्ण गोपाल द्वारा की गई थी।

शिकायत के बाद संयुक्त संचालक, शिक्षा संभाग बिलासपुर द्वारा की गई जांच में गंभीर गड़बड़ियाँ उजागर हुईं। जांच में स्पष्ट हुआ कि—

नियुक्ति के समय प्रस्तुत दिव्यांगता प्रमाण पत्र में दिव्यांगता का प्रतिशत ही अंकित नहीं था।

वर्ष 2004 में प्रस्तुत किया गया प्रमाण पत्र भी केवल 30% दिव्यांगता को दर्शाता है, जबकि सरकारी सेवा में दिव्यांग आरक्षण के लिए कम से कम 40% अनिवार्य है।

इस आधार पर संयुक्त संचालक ने सुधेश कुमार सिंह चंदेल को सेवा हेतु अपात्र माना और स्पष्ट अनुशंसा की कि उनकी सेवा समाप्त की जाए।

फिर भी कार्रवाई क्यों नहीं?

सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि यह अनुशंसा 05 दिसंबर 2024 को सचिव, स्कूल शिक्षा विभाग को भेजी गई, परंतु अब तक न कोई निलंबन, न बर्खास्तगी और न ही पाई-पाई की वसूली जैसी कोई कार्यवाही हुई है।

शासन की यह चुप्पी केवल लापरवाही नहीं, बल्कि एक फर्जी शिक्षक को संरक्षण देने जैसी प्रतीत हो रही है।

बड़ा सवाल: किसका संरक्षण प्राप्त है फर्ज़ी शिक्षक को?

इस मामले में यह भी चिंताजनक है कि दस्तावेज़ों की स्पष्ट अस्वीकृति के बावजूद शिक्षक सुधेश कुमार सिंह चंदेल आज भी सेवा में बने हुए हैं, जिससे यह अंदेशा गहराता है कि कहीं शासन में बैठे कुछ प्रभावशाली अधिकारी जानबूझकर इस मामले को दबाने की कोशिश तो नहीं कर रहे हैं?

छत्तीसगढ़ निःशक्त जन अधिकार सहयोग समिति के प्रांतीय अध्यक्ष राधाकृष्ण गोपाल ने इस पूरे प्रकरण को दिव्यांग समुदाय के साथ धोखा और असली दिव्यांगों के अधिकारों पर डाका बताया है। उन्होंने मांग की है कि – “ऐसे फर्जी प्रमाण पत्रधारी व्यक्तियों को तुरंत बर्खास्त कर उनके खिलाफ आपराधिक प्रकरण दर्ज कर शासन स्पष्ट संदेश दे कि दिव्यांग आरक्षण का अपमान बर्दाश्त नहीं होगा।”

यह महज़ एक मामला नहीं, सिस्टम की कमजोरी की मिसाल है

यह प्रकरण यह दर्शाता है कि शासन की जांच समितियों की रिपोर्टें सिर्फ औपचारिकता बनकर रह जाती हैं जब तक उच्च स्तर पर राजनीतिक या प्रशासनिक इच्छाशक्ति न हो। ऐसे में यह सवाल उठना लाज़िमी है कि— क्या शासन की नीयत साफ़ है?

क्या कहते हैं जानकार: “जब जांच में पात्रता की स्पष्ट कमी पाई गई है, तो सचिव स्तर से अब तक कार्यवाही नहीं होना बेहद गंभीर विषय है। यह न केवल नियमों का उल्लंघन है, बल्कि दिव्यांग आरक्षण के प्रति शासन की संवेदनहीनता भी उजागर करता है।” – (एक वरिष्ठ प्रशासनिक विश्लेषक)

यदि शासन वाकई में दिव्यांगजनों के अधिकारों के प्रति संवेदनशील है, तो उसे इस शिक्षक की सेवा समाप्त कर सख्त कानूनी कार्यवाही करनी होगी, ताकि भविष्य में कोई भी फर्जी प्रमाणपत्र के आधार पर दिव्यांग आरक्षण का मज़ाक न बना सके। वरना यह समझा जाएगा कि फर्जीवाड़े को शासन का संरक्षण प्राप्त है।

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