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जनहित और पारदर्शिता की आड़ में हुआ गोरखधंधा, सचिव के निजी खाते में भेजी गई शासकीय राशि!

जनहित की आड़ में निजी खातों में खेली गई शासकीय राशि की बंदरबांट, सचिव–जागरूक नागरिकों की सांठगांठ पर उठे गंभीर सवाल

अंगारखार पंचायत घोटाले की दूसरी कड़ी:

जनहित और पारदर्शिता की आड़ में हुआ गोरखधंधा, सचिव के निजी खाते में भेजी गई शासकीय राशि

जनहित की आड़ में निजी खातों में खेली गई शासकीय राशि की बंदरबांट, सचिव–जागरूक नागरिकों की सांठगांठ पर उठे गंभीर सवाल

जांजगीर-चाम्पा। ग्राम पंचायत अंगारखार में भ्रष्टाचार के जिन गंभीर आरोपों ने पंचायत व्यवस्था को कटघरे में खड़ा कर दिया है, उसी प्रकरण की दूसरी परत अब और भी चौंकाने वाली निकलकर सामने आ रही है। स्वयं को “जनहित के लिए पारदर्शिता अपनाने वाला” बताने वाले महेंद्र कुर्मी और मुकेश लहरे की भूमिका अब सवालों के घेरे में है। दोनों के बयानों और लेनदेन विवरणों ने यह साफ कर दिया है कि जनहित के नाम पर पंचायत की राशि का उपयोग नियमों और पारदर्शिता की बजाय व्यक्तिगत फोन-पे लेनदेन, दबाव, सांठगांठ और बंदरबांट में हो रहा था।

सचिव के व्यक्तिगत खाते में भेजी गई राशि, किस अधिकार से?

महेंद्र कुर्मी का कहना है कि पंचायत ने उनके खाते में जो राशि डाली, वह जनहित कार्यों में “पारदर्शिता” के लिए थी। लेकिन जब लेनदेन की जांच हुई तो चौंकाने वाला तथ्य सामने आया। महेंद्र कुर्मी ने पंचायत सचिव संतोष पाटले के व्यक्तिगत खाते में फोन-पे के माध्यम से कई बार राशि भेजी।

अब बड़ा सवाल यह है:
* पंचायत के शासकीय पैसों को सचिव के निजी खाते में भेजने की जरूरत क्यों पड़ी?
* किस नियम के तहत किसी नागरिक का निजी बैंक खाता पंचायत कार्यों का माध्यम बनाया गया?
* यदि पारदर्शिता ही उद्देश्य था, तो यह लेनदेन ग्रामसभा, कार्यवृत्त, बिल-वाउचर और अनुमोदन के बिना कैसे किया गया?

यह पूरा मामला खुलकर “पारदर्शिता” नहीं, बल्कि पंचायत-सचिव–निजी व्यक्तियों की सांठगांठ का स्पष्ट उदाहरण दिखाई देता है।

मुकेश लहरे को 35 हजार देने के बाद सत्ता का नया खेल: पचरी की आधी राशि पंचों में बांटी गई!

सूत्रों के अनुसार पचरी मरम्मत के नाम पर मुकेश लहरे के खाते में आए 35 हजार रुपये में से आधे से ज्यादा राशि उसने ग्राम के पंचों में बांट दी।

यह अपने आप में कई गंभीर सवाल खड़े करती है—

* क्या यह पंचायत कार्य था या पंचायत के नाम पर बंदरबांट?
* कौन-सी योजना में पंचों को बांटकर पैसा देना नियमों में आता है?
* यदि कार्य हुआ ही नहीं, तो राशि का वितरण किस अधिकार से किया गया?

इससे साफ है कि “जागरूक नागरिक” होने का दावा करने वाले ही भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाले नए ठेकेदार बन बैठे हैं।

पारदर्शिता का दावा खोखला — ग्रामसभा और समिति के बिना पैसा कैसे खर्च हुआ?

यदि सच में महेंद्र व मुकेश जनहित और पारदर्शिता चाहते थे, तो उन्हें करना क्या चाहिए था?
* ग्रामसभा बुलाकर एक प्रमुख समिति बनती
* खर्च का बिल-वाउचर,
* स्वीकृति का कार्यवृत्त,
* और प्रत्येक कार्य का भौतिक सत्यापन
* सभी ग्रामवासियों, जनप्रतिनिधियों और अधिकारियों के समक्ष रखा जाता।

लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। बल्कि आरोप यह हैं कि पंचायत को दबाव में लेकर, सचिव से सीधी सांठगांठ और जनहित कार्यों के लिए आई राशि का गुप्त लेनदेन व बाँट-फांट, यानी वह सबकुछ किया गया जिस पर वर्षों से ये दोनों लोग दूसरों पर आरोप लगाते थे।

जनता का भरोसा टूटा, जागरूकता का मुखौटा उतरता हुआ

ग्राम पंचायत में आज चर्चा है कि “जो हर सभा में भ्रष्टाचार का ढिंढोरा पीटते थे, वही आज उसी भ्रष्टाचार के सबसे बड़े लाभार्थी बन गए।” यह स्थिति ग्रामीणों में गहरा रोष पैदा कर रही है। लोग कह रहे हैं कि यदि यही “पारदर्शिता” की परिभाषा है, तो पंचायत निधि पर लोगों का विश्वास पूरी तरह टूट जाएगा।

अब नजरें जिला प्रशासन पर — क्या होगा संज्ञान?

इस मामले में अब तीन बड़े सवाल प्रशासन के सामने खड़े हैं
* सचिव के निजी खाते में भेजी गई राशि पर क्या कार्रवाई होगी?
* बिना ग्रामसभा, बिना समिति, बिना बिल-वाउचर के हुए खर्च की जिम्मेदारी किसकी है?
* जागरूक नागरिकों, सचिव, सरपंच और पंचों की सांठगांठ की जांच कौन करेगा?

अब देखना यह है कि क्या जिला प्रशासन इस पूरे मामले पर कठोर, पारदर्शी और निष्पक्ष कार्रवाई करता है या इन तथाकथित जागरूक नागरिकों, सचिव और चुने हुए जनप्रतिनिधियों के हौसले को और बुलंद होने देता है। यह मामला केवल एक पंचायत का नहीं, बल्कि पूरे पंचायत तंत्र में छिपे ऐसे फर्जीवाड़ों का प्रतीक बन गया है।

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